अपने प्रीति के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए जो ब्रह्मसूत्र का अकृत्रिम भाष्य होकर सर्व वेदों का सार हैं उस श्रीमद् भागवत नाम सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ का श्रीचैतन्य ने प्रयोग किया ।
श्रीमद् भागवत श्रीकृष्ण को ईश्वरों के ईश्वर को और सर्व कारणों का कारण मानते हैं । सब प्राणियों में वही अप्रतिम व सबसे योग्य प्रेमास्पद हैं क्योंकि वह केवल हमारा कल्याण चाहते हैं, वह हमारे दुःख विदूरित करते हैं, उनमें सब बढ़िया गुण विराजमान होते हैं और वह सब का आत्मा हैं । इस प्रीति को पाने पर हम पूर्ण आनन्द व ज्ञान प्राप्त करेंगे और सब दुःख सदा के लिए विनष्ट हो जाएगा । यह भगवत-प्रीति उत्तम पुरुषार्थ है, प्रयोजन है ।
जिन आदर्श लोग में यह भगवत-प्रीति विराजमान है उनका संकेत श्रीमद् भागवत भी करते हैं । वे लोग ब्रजांगनागण हैं और वे उस प्रीति को उत्तमा भक्ति के द्वारा व्यक्त करते हैं । उनकी भक्ति युगपत साध्यता व साधना है । सिद्ध अवस्था में स्वाभाविक है जबकि साधना अवस्था में उसका अभ्यास एक सिद्ध पुरुष के आनुगत्य में करना है । उन महान व्यक्ति के हृदय के साथ एक ही होकर साधक को उनसे भगवद-अनुकूल कार्य सीखने हैं, अर्थात किस तरह से मेरे अभिप्राय, क्रियाएँ व विचार श्रीकृष्ण की तृप्ति के लिए किये जाए उसको ही उनसे सीखना है । हमारे पास जो स्वार्थी अभिलाष हैं उनको विदूरित के उपाय को वह दिखाते हैं और हमें भगवत-प्रीति के योग्य पात्र बनाकर हमको साक्षात रूप से भगवान के साथ जोड़ देते हैं । इसलिए जो निष्कपट भक्ति है वह भगवत-प्रीति का उपाय है, अभिधेय है ।
अचिंत्य-भेदाभेद-वाद– जो वस्तु व जीवात्मा के बीच संबंध है, उसको विभिन्न सम्प्रदाय अनेक प्रकारों से समझाने की कोशिश करते हैं । वेद में कभी-कभी लिखित है कि ब्रह्म व जीव भिन्न हैं और कभी-कभी लिखित है कि वे दोनों समान हैं । वेदांत जगत के लिए श्रीचैतन्य का मत असमोर्द्ध अवदान है क्योंकि उनहोंने अनेक समझों का सामञ्जस्य करके निर्दोष सिद्धांत स्थापन किया है -
जो जीव व ब्रह्म का अभेद है वह चेतनांश में है । उनका भेद इसलिए है क्योंकि जीव अणु होकर माया से प्रभावित हो सकता है जबकि ईश्वर किसी भी प्रभावित या सीमित नहीं हो सकते । उनकी उपमा सूरज के साथ और जीव सूरज के किरण के साथ बनाई जा सकती है – किरण सूरज से अभिन्न हैं क्योंकि उनका उद्गम सूरज में है, और युगपत वे सूरज से भिन्न हैं क्योंकि उनकी उष्णता इतनी बड़ी नहीं है और वे सूरज से भिन्न दिखाई देते हैं ।
एक वस्तु युगपत अभिन्न व भिन्न कैसे हो सकता इसको मनुष्य का मन समझ नहीं कर पाता लेकिन ईश्वर के शक्तियों के अचिंत्य स्वभाव के कारण यह संभव है ।