श्री चैतन्यने आपके प्रधान परिकरों के सहित एक प्रमाण योग्य उपाय स्थापन किया जिससे संपूर्ण आनंद मिल जा सकते है । उनका कहना है कि ईश्वर की अथवा ईश्वर के भक्त की कृपा के द्वारा हमें शास्त्रीय श्रद्धा मिलता है । इसके आवलंबन से जिन साधु के पास भगवत-प्रीति है उनसे ही संग होगा । उनको गुरु रूप से स्वीकार करके भगवद-भक्ति का बीज मिलेगा और हम उनका आदेश पालन करके भजन-क्रिया शुरु कर देते हैं जैसे सेवा करना, मंत्र का जप करना, श्रीठाकुरजी की पूजा करना इत्यादि ।
ख़राब आदतों के वजह से शायद कुछ समय के लिए हमारा निश्चय स्थिर न रहेगा लेकिन प्रयत्न दृढ़ रहकर अनर्थ निवृत्त ही हो जाएँगे जिससे हमारी साधना निष्ठ होकर पथ के लिए अकृत्रिम रुचि मिलेगी । कुछ समय के बाद रुचि परिपक्व होकर कृष्ण के लिए प्रबल आसक्ति होगी । यह आसक्ति प्रौढ़ होने पर हम भाव नामक भगवत-प्रीति के प्रारंभिक अवस्था के आविर्भाव के लिए तैयार होंगे । भाव पकने पर प्रीति होगी ।
दूसरे आध्यात्मिक पथों में भौतिक वसतु सुख की तलाश में बाधाएँ माने जाते हैं और उनका प्रयोग छोड़ दिया जाता है । उसके विपरीत श्रीचैतन्य का कहना है कि जगत को हमारे प्रिय भगवान के सृष्टि के रूप में देखना चाहिए अतः उनकी सेवा के लिए ही जगत का इस्तेमाल करना चाहिए । चाहे संगीत, नृत्य, काविता व अन्य कलाएँ हो, भक्ति में उन सबका जगह है यदि वे कृष्ण के साथ संयुक्त किये जाते है । नौकरी करना, रसोई बनाना, खरीददारी करना इत्यादि जो व्यवहार कार्य हैं वे भी भक्ति के अंग हैं। वास्तव में अगर कृष्ण के लिए हमारा आत्म-निवेदन हुआ तो सारी ज़िंदगी भक्ति का अभ्यास बनेगा ।
अतः यह प्रक्रिया सबसे क्रियात्मक व सार्वलौकिक है, और सब के लिए उपगम्य भी है । भूत में यज्ञ करने के लिए केवल ब्राह्मण का अधिकार था, और आध्यात्मिक पथों के लिए साधारणता से सिर्फ़ मानव उपयुक्त माने जाते थे । परंतु श्री चैतन्यने इतने शरीर-आधारित विचार मिटाकर यह दिखाया कि हम आत्माएँ हैं जिनकी भगवान के साथ एक प्रेममय संबंध की अवश्यक्ता है । इस प्रकार से लिंग, जाति, राष्ट्रीयता इत्यादि के ध्यान दिए बिना उनहोंने भक्ति करने का समान अधिकार सब व्यक्तियों को दिया ।