रागानुगा भक्ति में कृष्ण के लिए हमारी स्वाभाविक प्रीति है अतः उनकी सेवा करने का अभिलाष स्वतः विद्यमान है । यथार्थ में यह प्रसिद्ध है कि ईश्वर एक व्यक्ति होकर अतिसुंदर हैं । श्री व्यासदेव जैसे मुनिगण ने उस सुंदरता को अपने दिव्य चक्षुओं के द्वारा देखते हुए श्रीविग्रह का वर्णन किया ।
श्री कृष्ण अपने अतिसुंदर रूप से अभिन्न हैं । उनका दोषहीन व्यक्तित्व हमेशा त्रिपाद-विभूति में और युगपत एकपाद-विभूति के हर वस्तु व जगह में विद्यमान हैं । जो लोग श्रीविग्रह के आध्यात्मिक रूप को आत्मा-दृष्टि से देखते हैं वे इस धारणा को अपने हृदय के सबसे गहरे जगह में रखकर अपने भौतिक दृष्टि को तृप्त करते हैं ।
श्रीविग्रह की अर्चना बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जगत हमें इंद्रियों के द्वारा आकर्षित करता है । ईश्वर को विषयों में नहीं देखते तो आध्यात्मिक प्रगति मुश्किल होगी । श्रीविग्रह को घर लाने पर यह जानना अवश्यक है कि हमारे साथ पुरुषोत्तम रहते हैं । इसलिए उनको भोजन, चंदन, सुगंध पुष्प, धूप, दीप इत्यादि अर्पण करके हम बाद में उनके प्रसाद रूप से उन वस्तुओं का ग्रहण कर सकते हैं । इस प्रकार से हमारे आँख, कर्ण, नाक, स्पर्श व जीभ सब इंद्रिय आध्यात्मिक बन रहे होंगे और फलस्वरूप एक दिन हम उनकी सेवा विशुद्ध हृदय से कर सकेंगे । अतेव हमें श्रीविग्रह को संतृप्त करने का प्रयास सदा करना है और यह सेवा हमको पूरी तरह से ही करनी चाहिए ।
दीक्षा के समय हमने श्रीगुरु व श्रीकृष्ण के लिए आत्मा-निवेदन करने की प्रतिज्ञा की । अपने प्रिय विग्रह की अर्चना करते करते हम इस स्वैच्छिक व प्यार-प्रेरित निवेदन के अर्थ को पुष्टि करते हैं । असल में जो उनकी कृपा अपने मूर्ति को देने से होती है इस कृपा के कारण हमें उनका व्यक्तिगत संग मिलता है और हम श्रीकृष्ण को जो अपने आपको अपने भक्तों को प्रदान देते हैं इनको श्रीठाकुरजी के रूप में देख सकते हैं, और उनका स्पर्श व सेवा भी कर सकते हैं ।
हे मित्र, यदि तुमको अपने बांधव का संग पसंद लगता है, तो गोविंद नामक हरि की मूर्ति को मत देखो । यह मूर्ति केशीघाट में खड़े रहकर कटाक्ष करते हैं, और बांसुरी को अपने पल्लव रूप होंठों पर रखकर उनका शरीर जो तीन जगह में भंग है वह चंद्रिका से उज्ज्वलित है ।
भक्ति-रसामृत-सिंधु १.२.२३९
जो भक्तिपूर्वक मेरे लिए पत्र, पुष्प, फल, जल आदि वस्तुओं को प्रदान करता है मैं उस शुद्ध अन्तःकरणवाले भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक प्रदत्त वस्तुओं को ग्रहण करता हूँ ।
भगवद्गीता ९.२६